श्री गोविंदगंज रामलीला समिति

श्री गोविंदगंज रामलीला समिति

154 साल पुरानी ऐतिहासिक रामलीला

एमपी के संस्कारधानी में जिस परंपरागत तरीके से रामलीला का मंचन होता है वो अपने आप में ही खास है। आजादी के पहले से चली आ रही श्री गोविंदगंज रामलीला को देखने के लिए दूर-दूर से लोग जबलपुर पहुंचते है। ये देश की सबसे पुरानी रामलीला है, जिसका मंचन बिना बिजली के चिमनी की रोशनी से शुरू हुआ था। संस्कारधानी जबलपुर में 1865 यानि की 153 साल पहले इस मंत्रमुग्ध कर देने वाली रामलीला का मंचन हुआ। नवरात्रि में आजादी के पहले से शुरू हुई रामलीला मंचन की ये रवायत आज भी कायम है। 

श्री गोविंदगंज रामलीला समिति ने इस रवायत की नींव रखी। जिसे निभाते हुए कई पीढ़ियां खत्म हो गई लेकिन ये समिति आज भी उसी परंपरा के साथ रामलीला का मंचन करती है। जैसा ग्रंथों में लिखा गया है। रामलीला के पूरे मंचन के समय पात्र पूरी तरह सात्विक रहते हैं और कुछ पात्र इस अपने घर का भी त्याग कर देते है।

रामलीला का हर मंत्र अपने संवाद को इस तरह से पेश करता है कि हर दर्शक रामलीला के मंचन में पूरी तरह से डूब जाता है। जबकि ये समिति बिना किसी वाद्ययंत्रों के रामलीला का मंचन करती है। मुकुट पूजन के साथ श्री रामलीला शुरु हो जाती है। इस मुकुट का रामलीला में महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके पूजन के बिना रामलीला का शुभारंभ नहीं होता।


सन् 1932 में पहली बार बल्ब की रोशनी में हुई रामलीला के राज्याभिषेक का मंचन एवं अन्य वर्षों का मंचन

जबलपुर संस्कारधानी जबलपुर में जब रामलीला की शुरुआत हुई थी तब यहां बिजली जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। रामलीला आयोजन समिति मिट्टी तेल के भभके की रोशनी में रामलीला का मंचन कराती थी। इसके बाद पेट्रोमैक्स की रोशनी में रामलीला का सजीव मंचन होने लगा था। 67 साल बाद सन् 1932 में जबलपुर में बिजली और पहली बार रामलीला मंचन बल्ब की रोशनी में किया गया। जानकारों के अनुसार लाइट की रोशनी में मंचन देखने का लोगों में इतना उत्साह था कि मंच के पास आने तक के लिए लोगों को जगह नहीं मिलती थी। समय के साथ आए बदलावों के चलते आज रामलीला का मंचन हाईमास्ट व एलईडी आदि की रोशनी में किया जा रहा है।

तीन चार दिन का डेरा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के प्रति लोगों की आस्था कही जाए या फिर मंचन देखने का उत्सा कि लोग यहां तीन से चार दिन तक डेरा डाले रहते थे। रामलीला देखने के लिए क्षेत्रीय लोग शाम से ही अपने घरों से बोरियां, टाट व दरी आदि मंच के आस-पास बिछा आते थे। ताकि मंचन के समय उन्हें आसानी से बैठने की जगह मिल जाए 

ऐसे हुई शुरुआत

मिलौनीगंज में डल्लन महाराज की प्रेरणा से रामलीला की शुरूआत हुई। रेलमार्ग न होने से शहर का व्यापार मिर्जापुर से होता था, जो कि मिर्जापुरा रोड भी कहलाता था। इसी मार्ग से बैलगाडिय़ों में माल लाया व ले जाया जाता था। इन्हीं व्यापारियों में मिर्जापुर के व्यापारी लल्लामन मोर जबलपुर आते रहते थे। उनके करीबी लोगों में डल्लन महाराज सबसे ऊपर थे। उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए रामलीला मंचन की बात रखी। जिस पर डल्लन महाराज ने खुलकर सहयोग दिया। उनके साथी रज्जू महाराज ने भी विशेष रुचि ली और सन् 1865 में पहली बार छोटा फुहारा स्थित कटरा वाले हनुमान मंदिर के सामने गोविंदगंज रामलीला का मंचन हुआ। 

                                           रामलीला मंचन का उद्देश्य भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र से लोगों को प्रेरणा देना एवं सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों में सुधार लाना था। इसके बाद नत्थू महाराज ने बागडोर संभाली, जिसमें मिलौनीगंज क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यापारियों ने तन, मन और धन से सहयोग दिया। इनमें मोथाजी मुनीम, साव गोपालदास, पुत्ती पहारिया, चुनकाई महाराज, डमरूलाल पाठक, मठोलेलाल रिछारिया आदि इसके सूत्रधार बने।

आजादी से एक सदी पहले की परंपरा

शहर में रामलीला का मंचन सबसे पहले श्री गोविंदगंज रामलीला समिति द्वारा 151 साल पहले वर्ष 1865 में शुरू किया गया था। इसकी नींव रज्जू महाराज द्वारा रखी गई थी। यह समिति आाजादी के 90 साल पहले से रामलीला का मंचन कर रही है। यह समिति आज भी उसी परंपरा के साथ रामलीला का मंचन करती है जैसा ग्रंथों में वर्णित है। बिना वाद्ययंत्रों के ही हर पात्र अपना मंचन करता है। रामलीला के पूरे मंचन के समय पात्र पूरी तरह सात्विक रहते हैं और कुछ पात्र इस अवधि में गृह त्याग भी कर देेते हैं।

देश में सबसे पहले और सबसे बड़ा मंच

श्री गोविंद रामलीला समिति शहर ही नहीं देशभर में सबसे पहले रामलीला का मंचन शुरू कर देती है। मुकुट पूजन के साथ श्री रामलीला शुरू हो जाती है। इस रामलीला का मंचन जिस मंच पर किया जाता है, उतना बड़ा मंच देश में कहीं भी नहीं बनाया जाता है। लकड़ी के मंच पर सन् 1925 से मंचन शुरू हुआ है। इसके पहले बरगद के पेड़ के नीचे बड़े चबूतरे पर रामलीला दिखाई जाती थी।


तीन साल नहीं कर पाए मंचन

समिति संरक्षक राकेश पाठक पीआरओ के अनुसार 1939 में दूसरे विश्व युद्ध के आसार बने हुए थे। अंग्रेजों ने किसी तरह के सार्वजनिक आयोजनों पर रोक लगा रखी थी। जिसके चलते उस साल रामलीला का मंचन नहीं हो सका। साल 1964 और 1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ गई। युद्ध में जबलपुर स्थित फैक्ट्रियों की भूमिका अहम थी साथ ही हालात भी सामान्य नहीं थे, जिसके चलते लगातार दो साल तक रामलीला का मंचन नहीं किया जा सका। इसके बाद से आज तक मंचन निर्वाद्ध जारी है।

मुकुट पहनकर बन जाते हैं भगवान

श्री गोविंदगंज रामलीला का शुभारंभ भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, माता सीता और भक्त हनुमान के मुकुट पूजन से होता है। इन मुकुटों को धारण करने के बाद साधारण पात्र लोगों के लिए भगवान स्वरूप हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि मुकुट में भगवान श्रीराम की विशेष कृपा होती है। यही वजह है कि बिना मुकुट पूजन के रामलीला का शुभारंभ नहीं होता है। आज शाम को मुकुट पूजन के पूर्व शोभायात्रा क्षेत्र भ्रमण पर निकाली जाएगी। जिसके बाद मंच पर उनका विधि विधान से पूजन तथा देव आह्वान किया जाएगा। बुधवार को राम जन्म से रामलीला का मंचन शुरू हो जाएगा।